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जब से मुझे सोचने की छमता मिली और मैं गहराई से सोचने लगी, कि हम सब को बनाने वाला एक ही है, इस संसार में जो कुछ भी है उसी के ऊपर निर्भर करता है। परंतु मेरे माता-पिता बौध्द हैं, मैं अपनी 13 वर्ष की आयु से हर रोज़ उस निर्माता से प्रार्थना करती थी कि मुझे सही मार्गदर्शन दे। फिर भी, मेरे स्कूल का ईसाई वातावरण था, मैं स्वाभाविक रूप से अपने आप को एक ईसाई मानने लगी थी।
अफ़सोस की बात है कि मुझे इस्लाम का ज़्यादा ज्ञान नहीं था। मैं इसे एक विचित्र धर्म मानती थी। कुछ अविकसित देश, जिसमे से ज़्यादातर मध्य पूर्व से थे, जो दमनकारी जीवनशैली का समर्थन करते थे। मुस्लिम महिलाओ को में समझती थी कि निचले स्तर पर रखा जाता है – एक दासी की तरह। जिसको सिर्फ अपने पति के लिए ही जीना होता, और जब चाहे उसका पति उससे वह जीवन छीन सकता था। इसमें से अधिकतर विचार मैंने अफवाहों में सुने थे, मैंने लोगों से बातचीत के दौरान समझा कि वह क्या बात कर रहे है और मैंने कुछ पत्रिकाए भी पढ़ी और मेने टेलीविज़न पर सऊदी और ईरान के बारे में देखा।
मैंने तीन साल पहले विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया था, तब मैं कुछ मुस्लिम लोगों से मिली जो मुस्लिम परष्ठभूमि के लोग थे। हैरत की बात है, पर पता नहीं क्यू मेरे मन में उनके धर्म को सीखने और जानने की जिज्ञासा होने लगी। मैंने देखा और मैं उनके सबसे बात करने के तरीके से बहुत प्रभावित हुई, सबसे ज़्यादा तो अपने धर्म के प्रति गर्व के कारण जिसका सब एक नकरात्मक अर्थ निकलते हैं।
मैं धीरे-धीरे इस्लाम से मोहित होने लगी, और मेरी पढाई के दौरान, मैं अपने खुद के धर्म ईसाइयत से ज़्यादा उनके धर्म की इज़्ज़त करने लगी। मैं हैरान थी, कि मैं इस्लाम धर्म को लेकर पहले कितनी गलत थी, और मैंने ये जाना और सीखा कि मुसलमान धर्म ने महिलाओं को बराबर का हक़ दिया है। तब मझे इस्लामिक जीवन शैली का एहसास हुआ और जाना की अमरीका की नकारात्मक सोच जो इस्लाम को कट्टरवाद कहती है।
ऐसा कहते है की कोई व्यक्ति बेवजह किसी के बारे में कुछ भी सोचता है, लेकिन सच्चाई कुछ और होती है ऐसा मेरे साथ भी हुआ था।
अधिक से अधिक साहित्य, संकेत और सबूत मेरे सामने आ रहे थे, जिसने मुझे सोचने पर मजबूर किया और मेरे ह्रदय को गर्म कर दिया। फिर मैं इस्लाम के बारे में सब जानना चाहती थी, मुझे इस्लाम में भाईचारे और एक दूसरे के प्रति झुकाओ की जानकारी थी।
मुझको सबसे ज़्यादा प्रेरित करने वाली बात थी इस्लाम का व्यावहारिक होना। जो की जीवन के हर एक पहलु को सही ढंग से जीना सिखाता है। और खुदा की कृपा से, मझे ईसाई धर्म की कमियों का एहसास हुआ, जिनको मैंने बिना सोचे समझे मान लिया था।
दोपहर, 4 अगस्त,1994, को 20 लोगो के सामने मैंने शहादह पढ़ा और एक आधिकारिक मुस्लिम बन गई…।
मैं अपने जीवन के उस दिन को नहीं भूल सकती और वह वर्ष जिसने मेरा सारा जीवन परिवर्तित कर दिया…..।
मुझसे पूछा गया की मुझको मुस्लिम बन कर कैसा लगता है और मझे क्या परेशानिया होंगी। फिर भी मैं इस विषय पर बात नहीं करना चाहती, क्योंकि दया मेरी प्राथमिकता नहीं है, मुझे कुछ उदाहरण देने चाहिए कि मैं किन परिस्थितियो से गुज़री हूं।
रमज़ान ख़त्म होने तक मुझको काफी कठिनाइयां हुई, मेरे घर में पारिवारिक विवाद होते रहे और मेरे ऊपर मौखिक अत्याचार होते रहे, और मुझको डराया धमकाया जाता रहा। कभी कभी मेरे कमरे को बिलकुल बर्बाद कर दिया जाता, और वहां से सारी पुस्तके गायब हो गई और मेरे दोस्तों और उनके माता-पिता को फ़ोन द्वारा कलंकित मेस्सेज किया जाता था।
कभी कभी मुझको घर में सुवर का मांस बना होने के कारण घर से बाहर रहना पड़ता और बाहर ही खाना पड़ता। यहां तक के लिए, मेरे अपने मैसेज खोलने से पहले खोल लिए जाते थे। खाने और घर के सिवा मुझे पैसे की और भी ज़रूरते थी। मैं अपने मैसेज गोपनीयता से पढ़ती थी। मेरे लेख और मेरा मस्जिदों और इस्लामिक स्थानो पर आना जाना भी छुप कर ही होता था। मैं अपने दोस्तों के यहां जाती रहती थी ताकि मैं इस्लाम को और ज़्यादा अच्छे से समझ सकूँ।
मैं तब तक नमाज़ नही पढ़ती थी जब तक मैं यह न निश्चित न कर लूँ की कोई आस-पास नही है। और मैं रमज़ान में अपने उत्साह को भी नही दिखा सकती थी। मैं उस एहसास को भी नही भूल सकती थी, जब मैं और किसी मुस्लिम बहन को हिजाब में देखती थी, और ना तो मैं उन पाठों को भूल सकती हु जो मैंने छात्रों द्वारा सीखा था। इसके अलावा मुझे मुस्लिमो की और जिस तरह मिडीया में इस्लाम को चित्रित किया गया है उससे भी, हमेशा रक्षा करनी चाहिए, और लकीर के फकीर मेरे माता पिता को भी मुझे सम्भालना पड़ता था।
मेरे खिलाफ मेरे माता-पिता का ऐसा स्वभाव देख कर मुझसे सहा नहीं जाता था। मैं अपने माता-पिता के प्यार के लिए तरस रही थी और मैं बार बार ये भी सोचती थी की मैं उनको बहुत दुःख दे रही थी। रमज़ान के पूरे महीने में मेरी माँ मुझसे एक बार भी नहीं बोलीं। मुझे हर समय सुनना पड़ता की कैसे मैंने उनको धोका दिया। मेरी हर सिफारिश और हर बात का उनपर कोई असर नही पड़ता था। मुझसे कहा जाता कि मैंने एक ऐसा काम किया है जो कभी माफ़ नही किया जा सकता। और अगर मेरे माता पिता को मेरे किसी दोस्त का पता चलता जो मेरे साथ होते तो वह उनके भी विरुद्ध होते।
हालांकि, मैं ये नही कह सकती कि मेरा जीवन बहुत दुखी था। मैंने इतना ज़्यादा कभी शांत महसूस नही किया था। मेरा ये सब कहना सिर्फ इस लिए है क्योंकि मैं ये बताना चाहती हूँ की लोग बिना प्रमाण के कुछ भी मान लेते है, आपको ऐसा लगता है इसका बहुत कम फायदा है, पर मेरे जैसे परिवर्तित होने वाले लोगो के लिए यह बहुत कीमती है।
मैं ये बता रही हूँ कि मैंने इस्लाम में परिवर्तित होने पर बहुत दर्द सहे हैं, पर मुझे इस्लाम ने बहुत से तोहफे दिए हैं, जिनमे से सबसे बड़ा तोहफा स्वर्ग का है।
मेरे परिवर्तित होने के समय, मैंने इस्लाम उसकी सच्चाई के कारण स्वीकार किया था। मुझे इस बात का कोई आभास नहीं था की मेरे जीवन में इतने परिवर्तन आएंगे। मैं खुद भी हैरान थी की मेरे अंदर इस्लाम के ज्ञान के लिए इतनी लालच थी, इस्लाम मेरे दिल और दिमाग में हर समय बसा हुआ था। और इस्लाम को और समझना, और अच्छा मुस्लिम बनना मेरा फ़र्ज़ था।
ये ऐसा है जैसे कोई अपनी इस्लामिक जीवन को और आगे बढ़ाना चाहता है, और वह इस्लाम व्यक्ति के जीवन में अंग-अंग, और उसकी अंतर आत्मा में पूरी तरह से फ़ैल जाता है। ये पोस्ट myzavia.com से ली गयी है
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