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अक़सा मस्जिद और उसकी दर्द भरी कहानी जो की मस्जिदुल अक़सा की दीवारें नमाज़ियों पर किये गए ज़ुल्म और उनके खून से रंगी हुई।
मस्जिदुल अक़सा पर सबसे पहला हमला सोमवार 8 अक्टूबर 1990 को दोपहर जोहर की नमाज से पहले 10:30 बजे हुआ था। इस नरसंहार में “उमना-ए कूहे माबद” नाम से पहचाने जाने वाले आदिवादी यहूदी के एक समूह ने मस्जिद अक़सा के आंगन में तीसरे माबद की नीव राखी थी।
जिसे नमाज़ियों की तरह से इसको रोकने के वजह से गर्शून सलमून के नेतृत्व वाले चरमपंथी यहूदियों और मुसलमानों के बीच जमकर संघर्ष हुआ। पूरी योजना के तेहत इज़रायल की आक्रामक सैनिकों ने फ़ौरन कार्रवाई करते हुए नमाज़ियों को आग लगा दी। इस घटना में 21 नमाज़ियों की मोके पर ही मौत होगई थी और150 नमाज़ी ज़ख़्मी हो गये और 270 से भी ज्यादा नमाज़ियों को गिरफ्तार कर लिया गया था।
मस्जिद अक़सा तक जाने वाली हर सड़कों को बंद करने और सहयक बलों के आगमन पर रोक लगाने की वजह से इस में इतनी मौत हुई घटना की जगह तक मदद पहुँचने में करीबन 6 घंटे का वक्त लगा.
मस्जिद अक़सा की पश्चिमी दिवार के पास बानी सुरंग को खोलने की घोषणा के पश्चात सोमवार 23 सितंबर 1996 में हुआ। इस घटना में फिलिस्तीनि क्षेत्र में इज़रायल के कब्ज़े वाले शासन के सैनिकों और मस्जिद अक़सा के बचाव में फिलिस्तीनियों के नागरिकों और पुलिस के बीच तीन दिन तक संघर्ष हुआ जिसमें 51 फिलिस्तानी नागरिक की मौत हुई और 300 घायल हुए जबकि 15 इजरायलियों की मौत और 78 घायल हुए।
इसके बाद फिर हुआ 28 सितंबर 2000 तीसरा हत्याकांड- गुरुवार का दिन था, तारिख 28 महीना सितंबर और साल 2000 उस दौरान मस्जिद अक़सा में प्रवेश करने की वजह से हत्याकांड हुआ। मस्जिद अक़सा में सोरोन के प्रवेश को फिलिस्तीनियों ने मस्जिद का अनादर जानते हुए फिलिस्तीनि युवाओं ने सोरोन को मस्जिद में प्रवेश करने से रोकने की कोशिश की जबकि सोरोन के साथ 9000 रक्षा सैनिक मौजूद थे।
सोरोन ने अगले दिन शुक्रवार 29 सितंबर 2000 आक्रामक सैनिकों ने मस्जिद के आंगनों में उस दिन की नमाज़ होने से कुछ समय पहले ही नमाज़ियों को आग गाला दी और देखते ही देखते मस्जिद के आंगन में खून के दरया बहने लगे। ये इतिहास के सबसे दर्दनाक वक़्त में से था जिसमें 250 फिलिस्तीनि नमज़ियों की मौत हुई.
यह घटना पुरे फिलिस्तीनि में दूसरे इंतिफादा की वजह बानी जिसमे सैकड़ों फिलिस्तीनियों ने अपने देश की रक्षा करते हुए अपनी जान गवाई।
15 अगस्त 1967 को इजरायली सेना के वरिष्ठ रब्बी श्लोमो गोरेन ने अपने 50 अनुयायीयो के साथ मस्जिदुल अक़्सा मे प्रवेश करके विशेष संस्कार अंजाम दिए। 8 अगस्त 1973 को रब्बी लुईस राबिनोविच और बिन्यामीन हेल्फ इजरायली केनेट के सदस्यो ने मस्जिद मे विशेष प्रार्थना करने के लिए प्रवेश किया।
28 जनवरि 1976 को इजरायल की केंद्रीय जिला न्यायालय के न्यायधीश रूथ उद ने मस्जिदुल अक़्सा मे इजरायल के अधिकार का कानून पारित किया। 24 फरवरी 1982 को सशस्त्र चरमपंथी यहूदीयो का एक समूह ने सलसला दुवार पर वाचमैन के साथ लड़ाई के बाद दो लोगो की हत्या करने के पश्चात मस्जिद मे प्रवेश करने का इरादा रखते थे।
11 अप्रैल 1982 को इजरायल के एक सैनिक ने मस्जिदुल अक़्सा मे प्रवेश करके गोली चलाकर दो फिलिस्तीनीयो की हत्या की और 60 से अधिक फिलिस्तीनी नागरिको को घायल किया। 23 मई 1988 को उमनाए कूहे माबद समूह के लगभग 20 सदस्यो ने इजरायली सेना सहित मस्जिदुल अक़्सा मे प्रवेश किया.
9 अगस्त 1989 को पहली बार औपचारिक रूप से इजरायली चरमपंथ समूह ने मस्जिदुल अक़्सा मे प्रवेश करके एक समारोह आयोजित किया। 28 जनवरी 1990 को चरमपंथ यहूदीयो का 10 लोगो पर आधारित एक समूह ने मस्जिदुल अक़्सा मे प्रवेश करके इस्लाम विरोधी नारे लगाए। 19 सितंबर 1990 को चरमपंथ यहूदीयो के एक समूह ने इब्री नव वर्ष के अवसर पर मस्जिदुल अक़्सा के चक्कर लगाए।
3 जनवरी 1991 मे उमना-ए कूहे माबद आंदोलन के सदस्य मूशा शैफेल रब्बी के साथ मस्जिदुल अक़्सा मे दाखिल हुए और आंदोलन के कुछ कमांडरो ने इजरायल का झंडा और तौरैत लेकर मस्जिदुल अक़्सा मे विशेष समारोह का आयोजन करने का इरादा था।
2 अप्रैल 1992 को मस्जिदुल अक़्सा के द्वार पर एकत्रित होकर लगभग 50 इजरायलीयो ने इस्लाम विरोधी नारे लगाते हुए मस्जिदुल अक़्सा को ध्वस्त करके उसके स्थान पर माबदे सुलैमान का पुनः निर्माण करना चाहते थे। 2 मार्च 1993 मे उमना-ए कूहे माबद के प्रमुख गरशोन सलामोन ने विशेष समारोह का आयोजन करने के लिए मस्जिदुल अक़्सा मे प्रवेश किया.
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