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अरब के सिपहसालार कतैबा इब्ने मुस्लिमा ने समरकंद को फतह कर लिया था. उसूल ये था कि हमला करने से पहले तीन दिन की मोहलत दी जाये और ये बेवसूली हुई भी तो ऐसे दौर में जब जमाना भी उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ रह0 का था.
ये वाकिया ख़लीफतुलमुस्लेमीन उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ रह0 के दौरे ख़िलाफत का है. आप को उमर बिन ख़त्ताब रजि0 का सानी समझा जाता है क्योंकि उमर रजि0 के दौरे ख़िलाफत मे रात में गश्त के दौरान एक औरत जो देहाती थी अपनी लड़की से कहती है कि दूध में पानी मिला दे नही तो उमर आ जाएगा.
तो लड़की जवाब मे कहती है कि उमर का अल्लाह तो देख रहा है तो उमर रजि0 उस लड़की से अपने बेटे का निकाह कर देते हैं. यही औरत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ रह0 की नानी हैं. उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ रह0 बहुत अमीर थे और शाहाना रिहाइश था. मगर जब उनको ख़लीफ़ा चुना गया तो अपनी तमाम दौलत गुरबा में तकसीम कर दी और एक निहायत मामूली शख़्स की तरह ज़िन्दगी गुज़ारी.
उन्होंने बमुश्किल ढ़ाई साल हुकूमत किया मगर ये दौर सुनहरा दौर माना जाता है. उनका अंदाज़े हुकूमत एक मिसाल बन गया. अरब के सिपहसालार कतैबा इब्ने मुस्लिमा ने समरकंद को फतह कर लिया था. उसूल ये था कि हमला करने से पहले तीन दिन की मोहलत दी जाये और ये बेवसूली हुई भी तो ऐसे दौर में जब जमाना भी उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ रह0 का था. समरकन्द के पादरी ने मुसलमानों की इस फतह पर कतैबा के ख़िलाफ़ शिकायत दमिश्क में बैठे मुसलमानों के हाकिम अमीरुलमोमिनीन को एक पयाम्बर(पैग़ाम पहुंचाने वाला) के ज़रिये ख़त लिखकर भेजवाई.
पयाम्बर ने दमिश्क पहुंच कर एक आलीशान इमारत देखी जिसमें लोग रुकूह व सुजूद कर रहे थे. उसने पूछा, “क्या यह मुल्क के हुक्मरान की रिहाइशगाह है?” लोगों ने कहा, “ये तो मस्जिद है. तू नमाज़ नही पढ़ता क्या?” पयाम्बर ने कहा, “मैं अहले समरकंद के दीन का पैरोकार हूं.” लोगों ने उसे हाकिम के घर का रास्ता दिखा दिया.
ये चूंकि इस्लामी तारीख़ का सुनहरा बाब है इसलिए हम आपकी ख़िदमत में अदल और इंसाफ का एक गैरमामूली वाकिया पेश करते हैं, मुमकिन है कि हमारा ज़मीर जाग जाये और एख़लाक़ी बेहतरी का ज़रिया-ए-वसील बन जाये. यह वाकिया मुस्लिम सिपहसालार कतैबा इब्ने मुस्लिमा का है. उनका इंतेकाल 715 ई0 मैं हुआ था. ये तारीखे इस्लाम का सुनहरा दौर था.
पयाम्बर लोगों के बताये हुए रास्ते पर चलकर हाकिम के घर जा पहुंचा. वहां वह क्या देखता है कि एक औरत गारा उठाकर एक शख्स को दे रही है. पयाम्बर जिस रास्ते से आया था वापस उसी रास्ते उन्हीं लोगों के पास जा पहुंचा जिन्होंने उसे ये रास्ता बताया था. उसने लोगों से कहा कि मैंने तुम लोगों से हाकिम के घर का पता पूछा था न कि किसी गरीब शख़्स का जिसके घर की छत भी टूटी थी.
लोगों ने कहा हमने तुझे पता ठीक ही बताया था. वही हाकिम का घर है. पयाम्बर ने बेदिली से दोबारा उसी घर पर जाकर दस्तक दी. जो शख़्स कुछ देर पहले तक लिपाई कर रहा था वही अंदर से नमुदार हुआ. “समरकंद के पादरी की तरफ से भेजा गया पयाम्बर हूं.” कह कर उसने अपना तार्रुफ कराया और खत हाकिम को दे दिया.
उस शख़्स ने ख़त पढ़कर उसी ख़त के पुश्त पर ही लिखा: “उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ की तरफ से समरकन्द में तैनात अपने आमिल के नाम, एक काज़ी की तैनाती करो जो पादरी की शिकायत सुने.” मुहर लगाकर ख़त वापस पयाम्बर को दे दिया. पयाम्बर वहां से चल तो दिया मगर अपने आप से बातें करते हुए कहा, “क्या ये वह खत है जो मुसलमानों की इस अज़ीम लश्कर को हमारे शहर से निकाल देगा?”
समरकंद लौटकर पयाम्बर ने ख़त पादरी को थमाया जिसे पढ़कर पादरी को भी अपनी दुनिया अंधेरी होती दिखाई दी. ख़त तो उसी के नाम लिखा था जिससे उन्हे शिकायत थी. उन्हें यक़ीन नही था कि काग़ज़ का यह टुकड़ा उन्हें कोई फ़ायदा पहुंचा सकेगा मगर फिर भी ख़त लेकर मज़बूरन उसी हाकिमें समरकंद के पास पहुंचे जिसके फरेब का वह पहले ही शिकार हो चुके थे.
कतैबा ने ख़त पढ़ते ही फौरन ही एक काज़ी का तअय्यन कर दिया जो समरकंदियो की शिकायत सुन सके. मौके पर अदालत लग गयी. एक चोबदार ने कतैबा का नाम बगैर लकब व मंसब के पुकारा. कतैबा अपनी जगह से उठकर काज़ी के रूबरू और पादरी के साथ आकर बैठ गया. काज़ी ने समरकंदियो से पूछा, “क्या दावा है तुम्हारा?” पादरी ने कहा, “बगैर किसी पेशगी व इत्तेलाअ के हम पर हमला किया, न तो इस ने हमें इस्लाम कबूल करने की दावत दी और न ही हमें किसी सोच विचार का मौक़ा दिया.
काज़ी ने कतैबा को देखकर पूछा, “क्या कहते हो तुम इस दावे के जवाब में?” कतैबा ने कहा, “काज़ी साहब, समरकंद एक अज़ीम मुल्क था इसके आस-पास के कमतर मुल्कों ने न तो हमारी किसी दावत को मानकर इस्लाम कबूल किया था और न ही जज़िया देने पर तैयार हुए बल्कि हमारे मुकाबले में जंग को तरजीह दी थी.
समरकंद की ज़मीने तो और भी सरसब्ज़ व शादाब और ज़ोरआवर थी हमें पूरा यकीन था कि ये लोग भी लड़ने को ही तरजीह देंगे. हमने मौके का फायदा उठाया और समरकंद पर कब्ज़ा कर लिया.” काज़ी ने कतैबा की बात को नज़रअंदाज़ करते हुए दुबारा पूछा, “कतैबा मेरी बात का जवाब दो, तुम ने इन लोगों को इस्लाम कबूल करने की दावत, जज़िया या फिर जंग की ख़बर दी?”
कतैबा ने कहा, “नहीं काज़ी साहब, मैंने जिस तरह पहले ही अर्ज़ कर दिया है कि हमने मौके का फायदा उठाया था.” काज़ी ने कहा, “मैं देख रहा हूं कि तुम अपनी ग़लती का अहसास कर रहे हो. इसके बाद अदालत का कोई काम रह ही नहीं जाता. कतैबा! अल्लाह ने इस दीन को फतह और अज़मत तो दी ही अदल व इंसाफ़ की वजह से न कि धोखा औऱ मौकापरस्ती से.
मेरी अदालत ये फैसला सुनाती है कि तमाम मुसलमान फौजी और उनके ओहदेदार अपने बीबी बच्चों के साथ, अपनी हर किस्म की मिल्कियत, घर और दुकाने छोड़कर समरकंद की हदों से बाहर निकल जायें और समरकंद में कोई मुसलमान बाकी न रह जाय. अगर इधर दोबारा आना भी हो तो बगैर किसी पेशगी, इत्तेलाअ व दावत के और तीन दिन को सोच-विचार की मोहलत दिये बगैर न आया जाय.
पादरी जो कुछ देख व सुन रहा था वह नाकाबिले यकीन बल्कि मज़ाक नज़र आ रहा था. चंद लम्हों की ये अदालत, न कोई गवाह और न कोई दलील की ज़रूरत. और तो और काज़ी भी अपनी अदालत बर्खास्त करके कतैबा के साथ ही उठकर जा रहा था. और चंद घंटों के बाद ही समरकंदियों ने अपने पीछे गरदोगुबार के बादल छोड़ते लोगों के काफिले देखे जो शहर को वीरान करके जा रहे थे.
लोग हैरत से एक दूसरे से सबब पूछ रहे थे और जानने वाले बता रहे थे कि अदालत के फैसले की तामील हो रही है. और उस दिन जब सूरज डूबा तो समरकंद की वीरान और खाली गलियों में सिर्फ आवारा कुत्ते घूम रहे थे. और समरकंदियो के घरो से आह और रोने धोने की आवाज़े सुनाई दे रही थी. उनको ऐसे लोग छोड़कर जा रहे थे जिनके अख़लाक, मआशेरत, बरताव, मअमिलात और प्यार व मुहब्बत ने उनको और उनके रहन-सहन को महज़ब बना दिया था.
तारीख़ गवाह है कि समरकंदी ये गम चंद घंटे बर्दाश्त न कर पाये और अपने पादरी की कयादत में ला इलाह इल्लल्लाह का इकरार करते हुए मुसलमानो के लश्कर के पीछे रवाना हो गये और उनको वापस ले आये. ये सब क्यों न होता, कहीं भी तो ऐसा नही हुआ था कि फातेह लश्कर अपने ही काज़ी की कही हुई बातों पर अमल करे और शहर खाली कर दे. दीने रहमत ने वहां ऐसे नकूश छोड़े की समरकंद एक अर्से तक मुसलमानों का दारुल खिलाफा बना रहा.
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