इस्लाम से पहले 'औरत' को 'मर्द' के पाक दामन पर दाग समझा जाता था, लेकिन इस्लाम आने के बाद…

क़ुरआन मजीद के बागौर मोताअले के बाद शायरे मशरिक़ “#अल्लामा_इक़बाल (रह०)” ने क्या खूब कहा था : अगर मैं मुसलमान ना होता और क़ुरआन मजीद को अल्लाह का कलाम ना समझता, तो उसे पढ़ने के बाद यह कहता कि यह किसी अज़ीम औरत की तस्नीफ है क्योंकि उस में जिस क़दर औरतों के हुक़ूक़ की बात की गयी है दुनिया के किसी मज़हब में नहीं की गयी”
इस्लाम से पहले मुख़्तलिफ़ मुअशरों में औरत को मुख़्तलिफ़ निगाह से देखा जाता था – मशरिक़ में औरत मर्द के पाक दामन पर दाग समझी जाती थी – यूनान में उसे शैतान ख्याल किया जाता था – जबकि रोम ने उसे घर के असासे से ज़्यादा हैसियत ना दी – नसरानियों के नज़दीक यह बाग़ ए इंसानियत का काँटा समझी जाती थी.

यहूदियों ने इसे लानत ए अब्दी का मुस्तहिक़ गर्दाना – जबकि इस्लाम वह वाहिद मज़हब है जिसका नुक़्ते नज़र तमाम मज़ाहिब और मुअशरों से पूरी तरह अलैहदा है – इस्लाम में औरत मर्द के साथ शरीक कार है – क़ुरआन करीम की सूरेह निसा की इब्तिदा में अल्लाह वाहदहु लाशरीक फरमाता है”
ऐ लोगों! डरते रहो अपने रब से जिसने पैदा किया तुमको एक जान से और उसी से पैदा किया उसका जोड़ा और फैलाये उन दोनों से बहोत से मर्द और औरतें ”
यह आयत तबअ निकाह में तिलावत की जाती है और इस से वाज़ेह हो जाता है कि मर्द और औरत की तख़्लीक़ नफसे वाहिद से है – यानी दोनों की असल एक है , फिर रुतबे में फरक क्यों ? रुतबे के फरक को मुकम्मल तौर पर समझाने के लिए सूरे हुजरात की तेरहवीं आयत में अल्लाह वाहदहु लाशरीक फरमाता है.
” ऐ लोगों! हमने तुम्हें तख़्लीक़ किया एक मर्द और एक औरत से और तुम को मुख़्तलिफ़ क़ौमे और खानदान बनाया ताकि एक दूसरे को शनाख्त कर सको – बेशक अल्लाह के नज़दीक ज़्यादा इज़्ज़त वाला वह है जो ज़्यादा बुलन्द किरदार हो-“
इसतरह अब बड़ाई का मयार भी मुक़र्रर हो गया – यानी बड़ाई सिर्फ और सिर्फ किरदार पर मुंहसिर है लिहाज़ा अगर कोई मर्द साहबे किरदार है तो वह बुलन्द मुक़ाम रखता है और अगर एक औरत ज़्यादा बुलन्द किरदार है तो फिर वह औरत मर्दों से ज़्यादा बुलंद मक़ाम रखती है.

सहीह बुखारी में हज़रात उमर (रज़ि० अ०) का यह क़ौल नक़ल है “मक्का में हम लोग औरतों को बिलकुल हीच समझते थे – मदीना में निसबतन उनकी क़दर थी लेकिन जब इस्लाम आया और अल्लाह ने उनके बारे में आयात नाज़िल फ़रमाई तो हम को उनकी क़दर व मंज़िलत मालूम हुई ” हज़रत उमर (रज़ि० अ०) के इस क़ौल से वाज़ेह है कि ज़माना ए जाहिलियत में औरत मुक़ाम क्या था.
इस्लाम ने कहीं भी औरत को कमतरी का तौक़ नहीं पहनाया बल्कि मसावात का तसव्वुर इस क़दर वाज़ेह करदिया कि क़ुरआन में जब भी उम्मते रसूल ﷺ को मुखाताब किया तो दोनों (मर्द वा औरत) को हुक्म दिया ” ऐ लोगों” ऐ लोगों! जो ईमान लाये ” के अलक़ाबात इस्तेमाल किये गए – क़ुरआन में कहीं भी “यानी ऐ मर्द नहीं कहा गया”.
अगर कहीं तफसीली हिदायात मक़सूद हुईं या पसंदीदह लोगों की निशानदेहि फ़रमाई गयी तो जहां मुस्लेमीन कहा तो उसके साथ मुसलिमात भी कहा गया इस तरह मोमिनीन के साथ मोमिनात, सादक़ीन के साथ सादिक़ात, साबिरीन के साथ साबिरात और सालेहीन के साथ सालिहात आया है –
जंगे खंदक में हज़रत अस्मा बिन्ते अबूबकर , हज़रत उम्मे अबान (रज़ि० ) हज़रत खूला (रज़ि०), हज़रत हिन्दा (रज़ि०) और हज़रत जवेरियाः (रज़ि०) का बे जिगरी से लड़ना तारीख का ज़र्री बाब है – इसके साथ साथ इशाअते दीन , तब्लीग और दूसरे उमूर मसलन तिजारत वगैरह में भी ख्वातीन का किरदार नेहायत जामे है – हज़रत अली (रज़ि०) की मुशीरे तिजारत एक खातून शफा बिन्ते अब्दुल्लाह थीं – हज़रत अली (रज़ि०) की ह्मशीर उम्मे हानी (रज़ि०) ने फ़तेह मक्का के मौके पर एक मुशरिक को पनाह दी जिसे आँहज़रत ﷺ ने मंज़ूर फरमाया –
इस से जहां मुसलमान ख्वातीन की सामाजी हैसियत का अंदाज़ा होता है वहाँ यह भी वाज़ेह हो जाता है कि आँहज़रत ﷺ ने खुद औरत के सियासी तदब्बुर पर मुहर सबत करदी – अलगर्ज इस्लाम ही वह मज़हब है जिसने औरत को क़दर वा मंज़िलत अता की है – यक़ीनन ज़रूरत इस अमर की है कि आज की औरत अपने मक़ाम और मर्तबे को ना सिर्फ समझे बल्कि उसकी हिफाज़त भी करे और अपनी सलाहियतों से साबित करे कि वह अपनी हुदूद के अन्दर रहते हुए एक बेहतरीन और बाइज़्ज़त रोल निभा सकती है.
हज़रत खदीजा (रज़ि०) की तिजारत में महारत और हज़रत आइशा (रज़ि०) की तालीम वा तरबियत में खिदमात आज भी औरतों के लिए मशअले राह हैं –