मेरा घराना मजहब परस्त था। गाने–बजाने को अच्छा नहीं समझा जाता था। मेरे वालिद हाजी अली मोहम्मद साहब निहायत दीनी इंसान थे। उनका ज्यादा वक्त यादे–इलाही में गुजरता था। मैंने सात साल की उम्र में ही गुनगुनाना शुरू कर दिया था। जाहिर है, यह सब मैं वालिद साहब से छिप–छिप कर किया करता था। दरअसल मुझे गुनगुनाने या फिर दूसरे अल्फाज में गायकी के शौक की तरबियत (सीख) एक फकीर से मिली थी। “खेलन दे दिन चारनी माए, खेलन दे दिन चार… ” यह गीत गाकर वह लोगों को दावते–हक दिया करता था। जो कुछ वह गुनगुनाता था, मैं भी उसी के पीछे गुनगुनाता हुआ, गांव से दूर निकल जाता था। रफ्ता–रफ्ता मेरी आवाज गांव वालों को भाने लगी। अब वो चोरी–चोरी मुझसे गाना सुना करते थे।
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वालिद नहीं चाहते थे कि रफी गाएं, पर एक फकीर की आवाज और बड़े भाई के प्रोत्साहन ने उनमें गायन के प्रति ऐसी रूचि जगाई कि उन्होंने उसे ही अपनी मंजिल बना लिया
एक दिन मेरा लाहौर जाने का इत्तिफाक हुआ। वहां कोई प्रोग्राम था, जिसमें उस दौर के मशहूर फनकार मास्टर नजीर और स्वर्णलता भी मौजूद थे। वहां मुझे भी गाने को कहा गया, उसवक्त मेरी उम्र 15 बरस होगी। जब मैंने गाना शुरू किया, तो नजीर साहब को बहुत पसंद आया। वह उन दिनों ‘लैला मजनूं‘ बना रहे थे। उन्होंने उसी वक्त मुझे अपनी फिल्म में गाने को कहा। मैंअपनी तौर पर इस पेशकश को कुबूल नहीं कर सका। मैंने उन्हें बताया कि अगर मेरे वालिद साहब जिन्हें हम मियां जी कहते थे, को राजी कर लें, तो मैं जरूर गाऊंगा। भला उन जैसे मजहबी इंसान जो गाने–बजाने को पसंद नहीं करते थे, कैसे राजी हो जाते, चुनांचे उन्होंने साफ इंकार कर दिया। लेकिन मेरे बड़े भाई हाजी मोहम्मद दीन ने न जाने कैसे, मियां जी को किस तरह समझाया–बुझाया कि उन्होंने मुझे ‘लैला मजनूं‘ में गाने की इजांजत दे दी। इस फिल्म के जरिए मेरी आवांज पहली बार लोगों तक पहुंची और सराहा गया।
इसके बाद फिल्म ‘गांव की गोरी‘ में भी मैंने गाने गाए, जो काफी मशहूर हुए। मगर सही मायनों में मेरी कामयाबी का आगाज फिल्म ‘जुगनू‘ के गानों से हुआ। फिर मुझे फिल्मों में काम करनेका शौक भी पैदा हुआ। लेकिन सच पूछो, तो मुंह पर चूना लगाना (मेकअप) मुझे अच्छा नहीं लगता था। इस चूनेबाजी में ही फिल्मों में मेरे काम करने और म्यूजिक देने की पेशकश आती रही, लेकिन मैंने गाने को अपनी मंजिल बना ली है। यह मंजिल ही मेरी जिंदगी है।
मेरे कोई खास शौक या आदत नहीं है। शराबनोशी तो दूर की बात है, मैंने आज तक सिगरेट को भी हाथ नहीं लगाया है। नमाज का फर्ज बाकायदगी से अदा करता हूं
पहली बार हज करने के बाद मैंने फिल्म लाइन छोड़कर अल्लाह–अल्लाह करने का इरादा कर लिया था, लेकिन कुछ लोगों ने यह प्रोपेगंडा शुरू कर दिया कि मेरी मार्केट वैल्यू खत्म हो गई हैऔर अब कोई मुझे पूछता भी नहीं है। जबकि फिल्मकार और म्यूजिक डायरेक्टर बदस्तूर मुझसे गाने का इसरार कर रहे थे। फिल्म लाइन छोड़ने का एक मकसद यह भी था कि नए गानेवालों को अपने फन को बढ़ाने का मौका मिले। मुझे फिल्मी दुनिया में दोबारा नौशाद साहब का इसरार खींच लाया था। उन्होंने कहा था कि मेरी आवाज अवामी अमानत है और मुझे अमानत में खयानत करने का कोई हक नहीं पहुंचता है। चुनांचे मैंने फिर गाना शुरू कर दिया और अब तो ताजिंदगी रहेगा।
आपको यह जानकर हैरत होगी, मुझे फिल्म देखने का बिल्कुल शौक नहीं है। अमूमन मैं फिल्म के दौरान सिनेमाहाल में सो जाता हूं। सिर्फ ‘दीवार‘ ऐसी फिल्म है, जिसे मैंने पूरी दिलचस्पी से देखा है। इस फिल्म की लड़ाई के मंजर मुझे अच्छे लगे। जहां तक गानों का सवाल है, अवाम की पसंद मेरी पसंद है। अगर कोई गाना अवाम को पसंद आ जाता है, तो मैं समझता हूं मेरी मेहनत का सिला मिल गया। वैसे फिल्म ‘दुलारी‘ का गाया गीत मुझे बहुत पसंद है– सुहानी रात ढल चुकी, न जाने तुम कब आओगे
जहां की रुत बदल चुकी, न जाने तुम कब आओगे
कुछ हसीन यादें भी जिंदगी के साथ जुड़ जाती हैं। मेरी जिंदगी में भी ऐसी यादों का खजाना है। एक बार मैं फिल्म ‘कश्मीर की कली‘ का गाना रिकॉर्ड कराने में मसरूफ था। शम्मी कपूर इस फिल्म के हीरो थे। वो अचानक रिकॉर्डिंग रूम में आकर बड़े मासूमियत भरे लहजे में बोले– ‘रफी जी ! रफी जी, यह गाना मैं पर्दे पर उछल–कूद करके करना चाहता हूं। आप गायकी के अंदाजमें उछल–कूद का लहजा भर दीजिए।‘ यह कहते हुए उन्होंने मेरे सामने ही उछल–कूद कर बच्चों की तरह जिद की। वह बहुत ही पुरलुत्फ मंजर था। उस गाने के ये बोल थे–सुभान अल्लाहहाय, हसीं चेहरा हाय, ये मस्ताना अदा,
खुदा महफूज रखे हर बला से, हर बला से
किसी भी फनकार के लिए गाने की मुनासिबत से अपना मूड बदलना बहुत ही दुश्वार अमल होता है। वैसे गाने के बोल से ही पता चल जाता है कि गाना किस मूड का है। फिर डायरेक्टर भी हमेंपूरा सीन समझा देता है, जिससे गाने में आसानी होती है। कुछ गानों में फनकार की अपनी भी दिलचस्पी होती है। फिर उस गीत का एक–एक लफ्ज दिल की गहराइयों से छूकर निकलता हैजैसे फिल्म ‘नीलकमल‘ का यह गीत– ‘बाबुल की दुआएं लेती जा,
जा तुझको सुखी संसार मिले।‘ जब मैं यह रिकॉर्डिंग करवा रहा था, तो चश्मे–तसव्वुर (कल्पना दृष्टि) में अपनी बेटी की शादी, जो दो दिन बाद हो रही थी, उसका सारा मंजर देख रहा था। मैंउन्हीं लम्हों के जबात की रौ में बह गया कि कैसे मेरी बेटी डोली में बैठ कर मुझसे जुदा हो रही है और आंसू मेरी आंखों से बहने लगे। उसी कैफियत में मैंने यह गाना रिकॉर्ड कर दिया। मैंने इसगाने में रोने की एक्टिंग नहीं की थी, हकीकतन आंसू मेरे दिल की पुकार बन कर, आवाज के साए में ढल कर आ गए थे।
असल बात यह थी कि मैं हज पर चला गया था। जब वापस आया, तो देखा कि शम्मी कपूर, राजेंद्र कुमार, दिलीप कुमार जैसे हीरो जिनके लिए मैंने सबसे ज्यादा प्लेबैक गीत गाए हैं, धीरे–धीरेनए आने वालों के लिए जगह खाली कर रहे हैं। उनकी जगह राजेश खन्ना व अमिताभ बच्चन संभाल रहे हैं। नए अदाकारों के थ लोग किसी नई आवाज में गीत सुनना चाहते हैं, इसलिए किशोरदा की आवाज का जादू चल गया। फिजा की इस तब्दीली से मुझे भी खुशी हुई, आखिर दोस्त की कामयाबी अपनी कामयाबी होती है। यही सबब है कि हमारे ताल्लुकात में रंजिश का रंग कभीपैदा नहीं हुआ। फिर भी, काम मुझे मिल रहा था और काफी मिल रहा । चुनांचे किशोर दा से मेरी दोस्ती पहले की तरह बरकरार है।