तीन तलाक़ पर यह कानून नहीं साजिश है, देखें सरकार ने क्या खेल खेला है

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तलाक पर यह कानून नहीं साजिश है :- हिन्दुस्तान साजिशों में घिरा हुआ है , देश की सत्ता देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी के खिलाफ़ साजिशों पर साजिशें करती जा रही है। भारत के मुसलमानों की देश और दुनिया में देश की सरकार की ऐसी छवि बनाई जा रही है जैसे देश के सारे मुसलमान अपनी पत्नियों को “तीन तलाक” देकर खुद से अलग कर रहे हैं और ये सभी तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं पति द्वारा तलाक दिए जाने के कारण दर दर की ठोकर खा रही हैं।

ताज़ी साजिश ट्रिपल तलाक को लेकर है

भारत के मुसलमानों की देश और दुनिया में देश की सरकार की ऐसी छवि बनाई जा रही है जैसे देश के सारे मुसलमान अपनी पत्नियों को “तीन तलाक” देकर खुद से अलग कर रहे हैं और ये सभी तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं पति द्वारा तलाक दिए जाने के कारण दर दर की ठोकर खा रही हैं।

उत्तर प्रदेश के चुनाव के पूर्व नोटबंदी के परिणामों से ध्यान हटाने के लिए इस मामुली से मुद्दे को हवा दी गयी और फिर इसमें उच्चतम न्यायालय और संसद शामिल हो गयी। सत्तापक्ष की इस साजिश में सभी विपक्षी पार्टियाँ भी चाहे अनचाहे शामिल हो गयी हैं तो यह वह डर है जिसका कारण भाजपा और मोदी की देश में लगातार होती जीत है।

देश को सबसे अधिक सरकार देने वाली कांग्रेस इस मुद्दे पर नपुंषक की तरह भाजपा और मोदी की बी टीम हो गयी है और राहुल गाँधी को देश के सारे दबे कुचले लोगों में मुसलमान दिखाई और सुनाई नहीं पड़ते। उनको डर है कि मुसलमान का नाम लेते ही मोदी और भाजपा उनको मुस्लिम परस्त घोषित करके हिन्दू वोटरों को अपने पक्ष में कर लेगी इसीलिए संसद में भी कांग्रेस ट्रिपल तलाक के मुद्दे पर खुलकर विरोध तो छोड़िए बहस तक नहीं कर सकी।

यह देश की वर्तमान परिस्थितियों में मुसलमानों की परिपक्वता और सहनशीलता की परिक्षा है कि वह सत्तासीन सरकारों की अपने विरुद्ध होती साजिशों को कबतक बर्दाश्त करते हैं। मैं प्रार्थना करूंगा कि देश के मुसलमानों की यह सहनशीलता बढ़ती जाए क्युंकि जिस दिन यह खत्म हुई उस दिन देश को नुकसान हो जाएगा।

देश की 25 करोड़ दूसरी सबसे बड़ी आबादी के प्रति सरकारों की ऐसी साजिशों का अंजाम उस दिन तक विभत्स नहीं होगा जिस दिन तक मुसलमान प्रतिक्रिया नहीं देगा। तलाक जैसे धार्मिक विषय में दखलअंदाजी करके यह सरकार मुसलमानों को उकसा रही है परन्तु देश का मुसलमान सब्र से काम ले रहा है और लेना भी चाहिए क्युंकि फिलहाल उसके पास और कोई विकल्प नहीं है।

यदि कोई निष्पक्ष सरकार होती तो इस देश में शादीशुदा महिलाओं और फिर संबंधों के टूटने के कारण दयनीय स्थीति में जी रही महिलाओं पर एक निष्पक्ष सर्वेक्षण कराती फिर तय करती कि किस धर्म की महिलाओं को कानून की आवश्यकता है। ऐसे सर्वेक्षण का सबसे अधिकृत आँकड़ा देश की सरकार द्वारा कराई गयी जनगणना-2011 अर्थात संसेक्स-2011 है जिसके परिणामों पर ही हम नज़र डालें तो तस्वीर बहुत कुछ साफ हो जाती है।

इस जनगणना से जो आँकड़े प्राप्त हुए हैं वह दिखाते हैं कि मुसलमानों में तीन तलाक और तलाक की आसान प्रक्रिया के बावजूद पत्नी से अलगाव की दर मात्र •56% है जबकि सात जन्मों के संबन्ध के लिए सात फेरे लिए सनातन धर्म के लोगों में यह दर डेढ़ गुणा अधिक अर्थात •76% है , वह भी तब जबकि सनातन धर्म वैवाहिक संबन्धों में अलगाव की अनुमति नहीं देता और सात जन्म तक एक ही पत्नी के साथ रहने की मान्यता देता है।

एक और आँकड़ा हैरानी वाला है कि अपनी पत्नी को तलाक देकर अलग करने के बावजूद इनमें से 40% मुसलमानों ने फिर शादी नहीं की। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक 23 लाख महिलाएं ऐसी हैं, जिन्हें बिना तलाक के ही छोड़ दिया गया है। इनमें सबसे ज्यादा संख्या हिंदू महिलाओं की है, जबकि मुस्लिम महिलाओं की संख्या काफी कम है।

देश में करीब 20 लाख ऐसी हिंदू महिलाएं हैं, जिन्हें अलग कर दिया गया है और बिना तलाक के ही छोड़ दिया गया है. वहीं, मुस्लिमों में ये संख्या 2 लाख 8 हजार, ईसाइयों में 90 हजार और दूसरे अन्य धर्मों की 80 हजार महिलाएं हैं। ये महिलाएं बिना पति के रहने को मजबूर हैं।

अगर बिना तलाक के अलग कर दी गईं और छोड़ी गई औरतों की संख्या का औसत देखें, तो हिंदुओं में 0.69 फीसदी, ईसाई में 1.19 फीसदी, 0.37 मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यों (जैन, सिख, पारसी, बौद्ध) में 0.68 फीसदी है।

इस तरह से देखा जाए तो मुस्लिमों में बिना तलाक के छोड़ी गई महिलाएं दूसरे धर्म की तुलना में काफी कम है।

एक सर्वेक्षण कंपनी “बीएमएमए” ने इस संदर्भ में बढ़िया काम किया है , 2014 का सर्वेक्षण प्रस्तुत करते हुए उसने आँकड़े दिए कि शरियत अदालतों में तलाक के कुल 219 मामले आए जिनमें 22 मामले ट्रिपल तलाक के थे। इन 219 तलाक के मामलों में से 117 पर रैन्डमली विवेचना करने और अन्य श्रोतों से आँकड़े जुटाने पर एजेन्सी ने दावा किया है कि •2% तलाक मैसेज पर दिया गया , फोन पर •6% और ईमेल से •17% लोगों ने तलाक दिया।

मेरी समझ में आजतक नहीं आया कि जिस संचार माध्यमों से देश और दुनिया की पूरी सरकारें चल रहीं हैं उन संचार माध्यमों का प्रयोग करके कोई अपना वैवाहिक संबन्ध तोड़ने का संदेश क्युं नहीं दे सकता ? वह क्युं नहीं इसके लिए मैसेज मेल या फोन पर अपनी पत्नी को संबन्ध समाप्त करने की सूचना दे सकता है ?

अजीब सा दोगलापन है

तलाक का अर्थ ही होता है कि स्वतंत्रता और फिर महिला अपना जीवन अपने हिसाब से जीने के लिए स्वतंत्र है। और आँकड़े देखिए जो 2011 का संसेक्स कहता है। विधवा औरतों का सबसे कम प्रतिशत मुसलमानों में 11.1 प्रतिशत है, जबकि हिंदुओं में यह 12.9, ईसाइयों में 14.6 और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों में 13.3 प्रतिशत है , क्युंकि मुसलमानों में विधवा विवाह सुन्नत है इसलिए यह आँकड़े सबसे कम हैं।

तलाक के बाद की वैवाहिक स्थिति के संबंध में भारत में की गई 2011 की जनगणना के अनुसार तलाकशुदा भारतीय महिलाओं में 68 फीसदी हिंदू हैं और 23.3 फीसदी मुसलमान हैं। अर्थात तलाक शुदा महिलाओं का पुनर्विवाह मुसलमानों में सबसे अधिक है।

आँकड़ों के इतर व्यवहारिक पक्ष यह है कि मुसलमानों में तलाक लड़की के घर वाले की रज़ामंदी से ही होता है और सदैव ही लड़की तलाक के बाद मायके चली जाती है जहाँ इद्दत के बाद उसके पुनर्विवाह की कोशिशें उसका पूरा खानदान करने लगता है और उस लड़की का पुनर्विवाह हो ही जाता है।

केन्द्र सरकार को महिलाओं के संदर्भ में सर्वेक्षण कराना चाहिए तब यह आँकड़े सामने आते कि कितनी महिलाएं तलाक जैसी आसान प्रक्रिया ना होने के कारण ससुराल में जलाकर मार दी जाती हैं , कितनों ने अपना जीवन वैवाहिक संबन्ध को तोड़ने के लिए अदालत में घिस घिस कर समाप्त किया , कितनी पति मर जाने के बाद सन्यासी का जीवन जीने को मजबूर होती हैं कितनी महिलाएं पति के त्यागे या मर जाने के बाद चुड़ैल , कपटी कुलटा कुलक्षिणी कहीं जाती हैं और यह ताना जीवन भर सुनती हैं कि “अपने पति को खा गयी”।

कराईए एक सर्वेक्षण।

दरअसल देश साजिशों के दुष्चक्र में फसा है और अफसोस यह कि उच्चतम न्यायालय भी इसमें शामिल है संसद भी इसमें शामिल है और किसी को भी नकाब पहना कर ओवैसी का पुतला जलवाने वाले भगवा ब्रिगेड तो शामिल हैं ही।

उच्चतम न्यायालय यूं कि जैन धर्म की एक प्रथा “संथारा” जिसमें भूखे प्यासे रह कर आत्महत्या किया जाता है वह तो न्यायालय को उनका धार्मिक अधिकार लगता है और मुसलमानों के अपने वैवाहिक जीवन को खत्म करने का अधिकार मुस्लिम महिलाओं का शोषण।

दरअसल मकसद केवल मुस्लिम पर्सनल लाॅ में दखल देकर शरियत को इस देश में खत्म करना है और कुछ नहीं। परन्तु इनको शायद यह नहीं पता कि मुस्लिम महिलाएं पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक धार्मिक होती हैं , शरियत को लेकर उनकी सोच किसी कानून और अदालती फैसले पर नहीं बल्कि कुरान पर आधारित होती है और आगे भी वही होगी।

बाकी बुरका पहना कर जिन्दाबाद कहने वालों का मजहब देश और दुनिया जानती ही है। दोगलापंती चरम पर है

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