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दूसरों को मज़हब के मामले में तंबीह करने, झिड़कने, डंपटने से आप दूसरों के दिल में बग़ावत और बेज़ारी ही पैदा करते हैं न कि मज़हब पर अमल का शौक़…. मज़हब पर अमल का शौक़ तो दूसरों के दिलों में तब पैदा होता है, जब आप ख़ुद मज़हब पर अमल करते हुए ऐसे अच्छे अच्छे काम करते हों कि ज़माना आपको एहतराम, इज़्ज़त और तारीफ़ की नज़र से देखने लगे…. फिर आपको देखने वाला हर इंसान खुद चाहेगा कि वो भी आपकी तरह मज़हबी हो जाए.
बरसों पहले अपने बड़ों से मैंने ये ख़ूबसूरत सीख हासिल की थी, कि उन्होंने कभी हमें मज़हब के नाम पर डांटा डपटा नही बल्कि उन लोगों का तरीका ये था कि जब कोई अच्छा काम करते तो उस काम की मज़हबी बुनियाद के बारे में भी बताया करते थे चाहे वो किसी भी मज़हब की हो.
मुझे याद है कि एक बार मैं अपने मौसा के साथ कहीं जा रही थी, तो मौसा ने बीच रास्ते में पड़ा पत्थर हटाया, ताकि कोई राहगीर या मवेशी उसकी वजह से चोटिल न हो जाए, तो साथ ही उन्होंने मुझे बताया था कि पैगम्बर मोहम्मद ने रास्ते से रोड़े, कांटे, रुकावटें हटाने को भी सवाब का काम बताया है.
इन बातों से ही मेरे दिल में इस्लाम से मोहब्बत पैदा होना शुरू हुई, वरना इस्लाम के बारे में दुनिया वालों की फैलाई हुई गलतफहमियों में मैं फंस ही चुकी थी और मैंने अपनी इन्हीं आँखों से ये भी देखा कि जिन लोगों पर दबाव डालकर उनको मज़हबी बनाने की कोशिश की गई थी, वो तमाम लोग बाग़ी हो गए थे.
यक़ीन जानिये, मज़हब के मामले में दूसरों को झिड़क, डंपट के आप उसे बग़ावत पर ही उकसाते हैं… इसलिये बेहतर है जितनी जल्दी आप ये बात समझ लें कि मज़हब आपसे थानेदार नही बल्कि एक रोलमॉडल का रोल निभाने की अपेक्षा करता है.
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