“हाशिमपुरा” में 47 मुसलमानों को आज ही के दिन एक-एक नौजवान को पीएसी के जवानों ने गोली मारी थी, इन्साफ के लिए आज तक उनकी रूह बैचैन है

हाशिमपुरा के कातिल कहाँ हैं ? (IS से बर्बर हैं हम) आज से ठीक 31 वर्ष पूर्व आज ही के दिन यानि कि 22 मई 1987 को मेरठ के “हाशिमपुरा” से मुसलमानों के एक एक जवान व्यक्तियों को उनके घरों से निकाला गया और उनको पीएसी के जवानों के घेरे में लेकर हाथ ऊपर करके पीएसी की गाड़ी में बैठाया गया।

फिर पास की नहर पर ले जाया गया और रात के अंधेरे में एक एक को उतार कर 47 लोगों को गोली मारी गई और जब मृत समझ लिया गया तो उसी नहर में फेंक दिया गया जिनमें मृत 42 लोगों की गोलियों से छलनी शव उसी नहर से प्राप्त हुए । बाकी 5 लोग गोली लगने के बाद बेहोश हुए और बाद में बच गये।

यह मेरी गढ़ी कहानी नहीँ है यह उसी हत्याकांड में बच गये पांच लोगों में से एक चश्मदीद गवाह जुल्फिकार नासिर का बयान है। उसी समय मेरठ के एसपी रहे श्री वीएन राय का साफ बयान है कि घटना के बाद ही उनपर पीएसी के जवानों को बचाने का सीधा दबाव था।

पर वह ऐसे दबाव में नहीं आए और कुछ इनवेस्टिगेशन करके कुछ लोगों पर एफआईआर दर्ज कर चुके थे कि उन्हे हटा कर सीबीसीआईडी को जांच दे दी गई और पूरे घटना की पीएसी के जवानों को बचाने के लिए लीपापोती की गई , ऐसे जघन्य हत्याकांड के 19 पुलिस अभियुक्तों को मात्र 15 दिन में जमानत दे दी जाती है और डेढ़ साल में उनकी सर्विस की बहाली।

फिर राज्य सरकार के अधीन सीबीसीआईडी मामले की अपने आकाओं के दिशा निर्देशों के हिसाब से इनवेस्टिगेशन करती है और कमजोर केस बनाकर अदालत में पेश करती है ,गाजियाबाद अदालत में मुकदमे की दशा देखकर सुप्रीम कोर्ट इसे तीस हजारी कोर्ट में स्थानांतरण कर देती है और 28 वर्ष बाद इस नीचली अदालत से जीवित 16 आरोपी बाईज्जत बरी कर दिये जाते हैं , सवाल यह है कि 42 लोगों के हत्यारे कहाँ हैं फिर?

यह है हमारे देश का न्याय जिसपर हम इतराते हैं कि लोकतंत्र का एक खंभा है । ऐसे ही उदाहरण और भी हैं जिसमे लक्षमणपुर बाथे,गुलबर्गा सोसायटी , गुजरात दंगा,मुम्बई दंगा,भागलपुर दंगा इत्यादि इत्यादि जहाँ ठीक ऐसी सी स्टोरी चलाई गई और मुख्य आरोपी अदालतों से बाईज्जत बरी हुए।

अब अगर यह न्याय है तो अन्याय क्या हुआ ? 42 लोगों की हत्या और 5 लोगों पर हत्या का प्रयास किसने किया ? यदि अदालत सही है तो इनवेस्टिगेशन एजेंसी सीबीसीआईडी गलत है और यदि सीबीसीआईडी सही है तो अदालत गलत ।परन्तु अदालत तो इस देश में भगवान से भी उपर है।

जिसके कितने भी गलत निर्णय हों सम्मान तो होना ही चाहिए अन्यथा अवमानना का मुकदमा दर्ज किया जा सकता है जबकि भगवान और इस देश के महापुरुष गालियाँ खाते रहते हैं पर अवमानना का मुकदमा क्या किसी मुकदमे का डर नहीं।

यदि यही है हमारा लोकतंत्र और इसकी खूबी तो धिक्कार है ऐसे लोकतन्त्र पर जहाँ एक स्पष्ट और तमाम सबूतों और गवाहों के बावजूद सरकारों के लीपापोती के कारण न्याय नहीं मिलता। स्पष्ट है कि पीएसी ने मुसलमानों को बगदादी के आइएसआइएस के जैसे घेर कर भूना और सीबीसीआईडी ने लीपापोती करके उन्हें बचाया।

याद रखें पीएसी अघोषित रूप से संप्रदायिक पुलिस फोर्स है जिसे बाद में दंगो वाले क्षेत्रों में नहीं लगाया गया क्योंकि एक पक्ष का साथ देने के तमाम आरोप हैं।

हकीक़त यह है कि घटना के समय इनवेस्टिगेशन एजेंसी जैसा आधार बनाएगी जैसे कमज़ोर या मज़बूत सबूत प्रस्तुत करेगी वही मुकदमे के फैसले पर मुख्य असर डालता है और इनवेस्टिगेशन अधिकारी या पुलिस राज्य सरकारों द्वारा संचालित होती हैं जहां के मुखिया को यह अधिकारी सलामी ठोकते हैं और उनकी मर्जी के अनुसार केस बनाते हैं वही हुआ सभी जगह ।जहां पीड़ित पक्ष को सरकार का साथ नही मिला वहाँ न्यायालय क्या कहीं न्याय नहीं मिल सकता।

एक सच यह भी है कि घटना की प्राईमरी इनवेस्टिगेशन अधिकारी घटना की दिशा जो दिखा देता है और उसी तरह के सबूत एकत्रित करके घटना के चरित्र को स्पष्ट कर देता है तो बाद में सीबीआई आजाए या कोई उसी डायरेक्शन में ही अन्ततः चलना पड़ता ही है उदाहरण देखना है।

तो सीओ जियाउलहक की हत्या जिसे भीड़ के द्वारा मारा दिखाया गया या आरुषि हत्याकांड जिसमे उसके माता पिता को प्रारंभ से ही दोषी बताया जा रहा था ,सच यह है कि यही स्टोरी प्रारंभिक जांच अधिकारी की थी और अंततः सीबीआई को यही मानना पड़ा।

सच यह भी है कि राजनैतिक आकाओं के निर्देश पर जो स्टोरी प्लांट की जाती है उसके अतिरिक्त सारे साक्ष्य मिटा दिया जातें हैं गायब कर दिया जाते हैं , वो भी इतनी सफाई से कि सीबीआई आये या कोई आये स्टोरी पर जांच करना उसकी मजबूरी बन जाती है।

मैं मानता हूँ कि दो पक्षों में यदि मुकदमा है तो अदालत से न्याय की उम्मीद की जा सकती है परन्तु यदि एक पक्ष सरकार है या सरकार से संबंधित है तो न्याय की उम्मीद व्यर्थ है। वही हुआ हाशिमपुरा,1984 सिख दंगा भागलपुर,वाराणसी, मुजफ्फरनगर,गुजरात और गुलबर्गा सोसायटी जहाँ न्याय के लिए लोग तरस रहे हैं पर गोधराकांड के आरोपियों पर आरोप सिद्ध हो चुके हैं क्युँकि वहां की सरकार का साथ था पीड़ित लोगों के साथ।

यही है व्यवस्था भारत की और फिर हम अपनी पीठ ठोकने के अधिकारी नही हैं ना ही आइएसआइएस और तालीबान के कुकर्मों पर बात तक करने के क्युँकि उससे घृणित कुकर्म यहां हुए हैं और आपको याद ना हो तो देश के सारे दंगों का इतिहास देख लें 1984, मेरठ मलियाना, भागलपुर, वाराणसी, गोधरा गुजरात, मुम्बई जहाँ गाजर मूली कि तरह मासूम लोगों को काटा गया, ट्रेन की बोगियों में आग लगाकर भून दिया गया, माँ बहनों का बलात्कार किया गया, गर्भवती महिलाओं के पेट चिर कर नवजात शिशुओं को तलवार की नोक पर रख कर चीर दिया गया।

गुलबर्गा सोसायटी की पूरे के पूरे एक हिस्से को जला दिया गया जिसमे पूर्व सांसद सहित तमाम लोग भून दिये गये , नरोदा पाटिया हो या बेस्ट बेकरी सब मासूमों के चीखों के गवाह हैं और हम आलोचना करते हैं आईएसएसएस और तालिबान की तो निहायत घटिया दर्जे के बेशरम है हम जो अपने कोढ़ और दाग दिखाई नहीं देते और दूसरों को नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं।

यही है सच कि हम सब आईएसएसएस और तालिबान से भी अधिक बर्बर हैं और जैसे वहां पीड़ितों को न्याय नहीं मिलता वैसे ही यहां भी नहीं ।वहां तो न्याय की उम्मीद ही नहीं वो एक हद तक बेहतर है कि सब्र कर लो यहां तो एक नीचली अदालत का फैसला 28 साल बाद आता है।

और कातिलों का पता नहीं होता कि भूत ने मारा या प्रेत ने तो बन्द करिये ये ड्रामेबाजी और अंग्रेज़ों से लेकर मुगलों तालिबानों और बगदादी के आइएसआइएस के जुल्म का रोना क्युँकि ढोंग है यह , हकीकत यह है कि आईएसएसएस जो आज कर रहा है हम वह 28-30 सालों से करते आरहे हैं ठीक वैसे ही मासूमों को कत्ल करना बस हम वीडियो नही बनाते।

जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसे सारी दुनिया में है वैसे ही यहाँ भी है

देश के लोकतंत्र के सारे खंभों में घुन लग चुका है , कार्यपालिका कठपुतली बन चुकी है विधायिका को लकवा मार चुका है कुछ हद तक विश्वास के योग्य रही न्यायपालिका अपना विश्वास खो रही है और तथाकथित चौथा खंभा मिडिया बिक चुका है ।

यदि यही है लोकतंत्र तो हम गुलाम ही भले थे

मजेदार बात यह है कि इस घटना और न्याय व्यवस्था पर शर्म करने के बजाए इसी देश के एक वर्ग से कुछ लोग खुश हैं और वो इसलिये कि फ्री में 42 मुसलमानों का कत्ल हुआ और न्याय ना पाने वालों के जले पर नमक छिड़क रहे हैं । स्पष्ट सबूत और चश्मदीद गवाह भी यदि 29 वर्ष में न्याय ना दिला सके तो लानत है ऐसी न्याय व्यवस्था पर।

इस सवाल का जवाब है व्यवस्था , कार्यपालिका और न्यायपालिका के पास कि यदि आरोपी निर्दोष हैं तो 42 मुसलमानों के हत्यारे कौन थे ? चित्र में दिख रहे सब लोग मारे गये थे , कैसा सबूत चाहिए अदालत को ?