खुदा ने क़ुरान से पहले की किताबों की हिफाजत का ज़िम्मा इसलिए नहीं लिया क्योंकी…

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अगर खुदा कयामत तक कुरान की हिफाजत की गारंटी ले सकता है, तो उसने ऐसा ही इंतजाम पहले की किताबों के साथ क्यों न किया ? क्या यह उसे न पता रहा होगा कि उसकी अलग-अलग किताबें अलग-अलग मजहब पैदा करेंगी और उनके नाम पर अलग-अलग फाॅलोवर्स एक दूसरे से नफरत करेंगे.. एक दूसरे के खिलाफ साजिश करेंगे.. एक दूसरे का कत्लेआम करेंगे.. ?

कितना अच्छा होता कि वह पहली किताब के साथ यही स्टेप ले लेता और न अलग-अलग किताबें होतीं और न उनके अलग-अलग फाॅलोवर्स एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे होते। जवाब : क़ुरआन से पूर्व की किताबों के बाद भी नबियों को आना था, और अल्लाह की निशानियां बहुत स्पष्ट तौर पर दुनिया को दिखानी थीं.

इसलिये कुरआन से पूर्व की किताबों की सुरक्षा करने की इतनी ज़्यादा आवश्यकता नहीं थी, हाँ जितनी आवश्यकता थी उतनी सुरक्षा ज़रूर होती थी उन किताबों की, उन में लोग थोड़े कुछ बिगाड़ डाल कर कुछ कुरीतियां बना लेते थे, मगर उन किताबों का मूल सन्देश फिर भी ख़त्म नहीं हो जाता था, और वो किताबें एकदम भ्रष्ट नही हो जाती थीं.

जैसे आज भी तौरेत और इंजील में क़ुरआन की शिक्षाओं से बहुत ज्यादा साम्य दीखता है, तो उस समय उन किताबों में अपने से आगे आने वाले नबी की तस्दीक़ होती थी, जब वो नबी आता था तो स्पष्ट पहचान होती थी और अपनी किताबों को मानने वालों के पास स्पष्ट निर्देश होता था कि वह उस नबी को मानें, और अगर न भी मानें तो भी भलाई का तकाज़ा ये था कि उस नबी के विरुद्ध संघर्ष न करें बल्कि उसका सम्मान करें.

कुरआन के आगे सुधार करने के लिए किसी नबी को नही आना था, सो इसमें थोड़ा सा भी बदलाव न किया जा सके ऐसा इंतज़ाम किया गया !! रहा सवाल कि किताबों में बिगाड़ होते रहने देकर अल्लाह ने ख़ुद लोगों को क्यों भटकाया और लड़ाया ?? तो क्या वाक़ई किताबों के एक दूसरे से अलग होने की ही वजह से लड़ाइयां होती हैं वरना नही होतीं ?

एक कुरआन के मानने वालों की आपसी जंगों पर आप रोज़ ही कोई न कोई तब्सिरा करते हैं, इसके बाद भी आपको ये मलाल है कि अगर अल्लाह एक ही किताब रखता तो लोग न झगड़ते ? धर्म का अलग होना आपस में मारकाट करने के हज़ारों बहानों में से सिर्फ़ एक बहाना है, और अगर ये बहाना न भी होता तो भी एक ही धर्म के लोग आपस में किन किन बहानों से लड़ मर सकते हैं.

ये मिसाल आपकी आँखों के सामने ही है वास्तव में अल्लाह ने मनुष्य को स्वतंत्र इच्छा दी है, उसकी प्रकृति में अच्छाई और बुराई को समझने और इंसाफ़ करने की समझ दी है, और दुनिया में उसे एक परीक्षा के लिये भेजा है, कि उसके सामने दुनिया में भलाई और बुराई, ये दो रास्ते होंगे… और अपनी स्वतंत्र इच्छा से वो जिस रास्ते को चुनेगा उस आधार पर उसको पारलौकिक ज़िन्दगी में दण्ड या पुरूस्कार दिया जाएगा|

और आप देखिये, न क़ुरआन में कहीं आपस में बंट जाने को लिखा हुआ है, न पिछली किताबों में विधर्मियों की जान लेने की शिक्षा दी गई है, ये मारकाट और लड़ाई झगड़े तो इंसान खुद करता है, यहोवा, अल्लाह या मसीह ने नही कहा कि केवल किसी का धर्म अलग हो तो उससे लड़ो आपके सवाल का जवाब बड़ी खूबसूरती से अल्लाह ने सूरह मायदा की 45 से 48वीं आयत में दिया है कि तौरेत वाले तौरेत से फ़ैसला करें, और इंजील को तौरेत की पुष्टि में उतारा गया है.

इंजील वालों को इंजील से फ़ैसला करना चाहिए, इसी तरह क़ुरान इन दोनों किताबों की पुष्टि में उतारी गई है और उनकी संरक्षक है, और क़ुरआन वालों को क़ुरआन से फ़ैसला करना चाहिए, अल्लाह ने सबके लिए एक ही शरीयत तय की है, अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक समुदाय बना देता। पर जो कुछ उसने तुम्हें दिया है, उसमें वह तुम्हारी परीक्षा करना चाहता है। “अतः भलाई के कामों में एक-दूसरे से आगे बढ़ो।” तुम सबको अल्लाह ही की ओर लौटना है। फिर वह तुम्हें बता देगा, जिसमें तुम विभेद करते रहे हो.

 

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